अर्थ व्यवस्था
हिमाचल प्रदेष एक कृशि प्रधन प्रदेष है। सन् 1948 में हिमाचल बनने से पूर्व इस क्षेत्रा के लोगों के आर्थिक विकास और समाज कल्याण के लिए कम ध्यान दिया जाता था। तत्कालीन रियासतों में से कोई भी आर्थिक रूप से सुदृढ़ नहीं थीं। रियासतों के षासक अपने क्षेत्रों को विकसित करने की इच्छा भी नहीं रखते थे। राजा लोग अपने रंगों में रंगे होते थे और प्रजा के प्रति उनका व्यवहार प्रायः नकारात्मक था और प्रजा बेचारी असहाय होती थी। लोग गरीब और साध्नहीन थे। परिवहन के साध्न न होने के कारण वे खेतों में पैदा किए गए अनाजों, सब्जियों, फलों व अन्य वस्तुओं को बाजार तक नहीं पहुंचा पाते थे। उनकी आर्थिक स्थिति दयनीय थी। अंग्रेजों ने भी अपने अध्ीन क्षेत्रों की ओर ध्यान नहीं दिया। लोग अपने गुजारे के लिए केवल जमीन पर ही निर्भर रहते थे। लोगों के पास थोड़ी बहुत उपजाऊ भूमि ही होती थी। आम किसान पहाड़ की हिमाचल के गठन के पष्चात् प्रदेष के लोगों और सरकार ने अपनी तथा प्रदेष की आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाने के लिए प्रयास आरम्भ किए। आज हिमाचल की आर्थिक अवस्था कृशि, बागवानी, जल विद्युत, सड़कों और परिवहन पर पूर्णतया आधरित है।
कृशि
हिमाचल प्रदेष के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृशि है। 76 प्रतिषत जनसंख्या इस पर निर्भर है। यदि उन लोगों की भी गिनती की जाए जो परोक्ष रूप से कृशि पर निर्भर है तो हम कह सकते हैं कि 92 प्रतिषत लोग अपनी आजीविका इस महत्त्वपूर्ण व्यवसाय से पैदा करते हैं। कृशि के कार्य से राज्य के घरेलू उत्पादन में 50 प्रतिषत षु( लाभ होता है। अर्थ व्यवस्था में कृशि के महत्त्व को सम्मुख रखते हुए इस कार्य को पांचवें दषक से ही प्राथमिकता दी जाने लगी। अनाज और दूसरी नकदी फसलें, सब्जियां, तिलहन, अदरक आदि का अध्कि उत्पादन हुआ। हिमाचल प्रदेष में अध्कितर क्षेत्रा दुर्गम होने के कारण योग्य नहीं है। वे केवल वनों, घासनियों और चरागाहों के रूप में प्रयोग योग्य हैं। केवल 11 प्रतिषत भूमि ही कृशि योग्य है। अच्छी पैदावार प्राप्त करने के उद्देष्य से प्रदेष सरकार और कृशि विभाग ने कार्यक्रम तैयार किए ताकि लोगों को अपनी भूमि से दो से अध्कि फसलें प्राप्त हों। इस दिषा में अपेक्षाकृत प्रगति भी हुई है। आलू और सब्जियों के बीज के लिए हिमाचल प्रदेष समस्त भारत में प्रसि( है। खाद्यानों में भी इसी भान्ति अच्छी उपलब्ध् हो रही है।
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जलवायु
प्रकृति ने हिमाचल प्रदेष को कृशि योग्य जलवायु और भौगोलिक विभिन्नताओं से परिपूर्ण बनाया है। हिमाचल प्रदेष के निचले और घाटी क्षेत्रों में जहां आर्द्र और सुहावना जलवायु होता है वहीं प्रदेष के ऊपरी क्षेत्रों, जैसे किन्नौर, लाहौल-स्पीति और चम्बा की पांगी तहसील आदि में षुश्क जलवायु है। कहीं भारी वर्शा तो कहीं बर्फ और कहीं बिल्कुल सूखा पड़ा रहता है। औसतन सूखे क्षेत्रों में वार्शिक वर्शा 25 से.मी. और कांगड़ा घाटी में 250 से.मी. होती है। इसमें से लगभग 75 प्रतिषत वर्शा जून से सितम्बर माह तक होती है। प्रदेष को जलवायु की विविध्ता के लिए छोटा भारत कहा जा सकता है, क्योंकि विभिन्न जलवायु यहां देखने को मिलती है।
प्रदेष के अध्किांष क्षेत्रों में मिट्टðी का प्राकृतिक रूप देखने को मिलता है। कांगड़ा में एसिड की मात्रा वाली मिट्टðी की बहुतायत है। भूमि की मिट्टðी में भी भिन्नता है। अध्कि वर्शा वाले क्षेत्रों में चिकनी व दोमट किस्म की और ऊपरी क्षेत्रों की रेतीली मिट्टðी होती है। कृशि-जलवायु के आधर पर प्रदेष को चार खण्डों में विभक्त किया जा सकता है।
1. षिवालिक पहाड़ी खण्ड- इस खण्ड में तलहटी और घाटी क्षेत्रा, जो समुद्र तल से लगभग 800 मीटर की ऊंचाई पर है, जलवायु अ(र्-ऊश्ण होती है। इस खण्ड में प्रदेष का 35 प्रतिषत वनों और 33 प्रतिषत कृशि योग्य क्षेत्रा आता है। भूमि दोमट किस्म की है। भौगोलिक बनावट के कारण पूरे क्षेत्रा में जंगल कहीं-कहीं ही उग सकते हैं। जलवायु में आर्द्रता की कमी होती है। इस क्षेत्रा में वार्शिक वर्शा लगभग 150 से.मी. तक होती है, जिसमें से 75 प्रतिषत केवल मानसून में ही होती है। अनियमित और अपर्याप्त वर्शा के कारण बाकी मौसम में फसलों पर कुप्रभाव पड़ता है। फसलें अच्छी नहीं होती। कटाव वाला क्षेत्रा होने से पहाड़ी नालों आदि से भूमि का उपजाऊपन प्रायः नश्ट होता रहता है। घाटी के क्षेत्रों में सिंचाई सुविध या तो नालों से पानी को मषीनों द्वारा उठाकर अथवा कुओं और टयूब-वैलों तथा टैंकों द्वारा उपलब्ध् कराई गई है।
प्रमुख फसलें गेहूं, मक्की, धन, चना, गन्ना, सरसों आदि की हैं तथा आलू, अन्य सब्जियां और संगतरा, आम, अमरूद, लीची और नीम्बू प्रजाति के फल आदि उगाए जाते हैं। फसलों का उत्पादन चक्र वर्शा की स्थिति के अनुसार मक्की-गेहूं, चन्ना-मक्की, मक्की-सरसों-गन्ना आदि हैं। फिर भी सिंचाई की स्थिति के अनुसार निम्नलिखित फसलों का चक्र प्रयोग में लाया जाता हैः
1) मक्की-गेहूं, 2) मक्की-तोरिया-गेहूं, 3) मक्की-आलू-गेहूं, 4) धन गेहूं,
5) धन-बरसीम और 6) मक्की-सरसों-गन्ना आदि
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2. मध्य पहाड़ी खण्ड- समुद्र तल से 800 मीटर से लेकर 1600 मीटर तक की ऊंचाई वाला क्षेत्रा समषीतोश्ण जलवायु का है। वार्शिक वर्शा लगभग 180 से.मी. तक होती है। वर्शा का 70 प्रतिषत भाग मानसून में होता है। मिट्टठ्ठी दोमट और चिकनी होती है। इस खण्ड में पूरे राज्य का लगभग 32 प्रतिषत भाग वनों के अध्ीन और लगभग 53 प्रतिषत कृशि योग्य क्षेत्रा है। सिंचाई नालों, खड्डों, कूहलों तथा टैंकों द्वारा की जाती है। जलवायु में आर्द्रता प्रायः कम ही होती है। कृशि के अतिरिक्त जमीन का बड़ा हिस्सा घासनियों का है। ये घासनियां प्रायः उत्तरी और दक्षिणी ढलानों पर ही होती हैं। वन प्रायः उत्तरी-पूर्वी ढलानों पर पाए जाते हैं। घासनियों में अच्छी किस्म का घास नहीं होता क्योंकि सर्दियों में ठण्ड अध्कि हो जाती है। गर्मियों में सूखे की स्थिति बनी होती है। किसानों को घासनियों के एक बड़े भाग से कम लाभ होता है। मुख्य फसलें मक्की, गेहूं, माष, जौ, सेम और धन आदि होती हैं। यह खण्ड नकदी फसलें पैदा करने के लिए उपयुक्त है। बेमौसमी संब्जियां, अदरक और फलों में नाषपाती, प्लम, खुमानी और अखरोट आदि प्रमुख हैं। इस क्षेत्रा में उच्च किस्म के गोभी, मूली के बीज तैयार किए जाते हैं।
3. ऊपरी पहाड़ी खण्ड- समुद्र तल से 1600 मीटर से अध्कि ऊंचाई पर यह खण्ड आता है। यहां का जलवायु सीलन भरे तापमान वाला तथा षंकु आकार की पत्तियों वाले वृक्षों के जंगलों से ढका पड़ा है। मिट्टठ्ठी अध्कितर चिकनापन लिए हुए होती है। इस खण्ड का लगभग 25 प्रतिषत भाग वनों से ढ़का हुआ है। केवल 11 प्रतिषत भाग पर कृशि की जाती है। वार्शिक वर्शा 100 से 150 से.मी. जिसमें से 60 प्रतिषत वर्शा केवल वर्शा ट्टतु में ही होती है। भूमि कटाव चट्टठ्ठानें खिसकने और भूमि के खिसकने से होता है। परन्तु अन्य खण्डों की अपेक्षा कम कटाव होता है। कृशि योग्य क्षेत्रा पहाड़ों की ऊंचाइयों पर स्थित है। सिंचाई के साध्नों की कमी है। यहां छोटे नालों, ख्यस्त्रों आदि से सिंचाई की जाती है। साधरणतया गेहूं, जौ, मटर व दालें आदि की फसलें होती हैं, कहीं-कहीं मक्की भी पैदा हो जाती है। यह क्षेत्रा अच्छी किस्म के बीज आलू, सब्जियों, सेब, आडू, खुमानी और नाषपाती जैसे फलों की पैदावार के लिए उपयुक्त है।
4. ठण्डा षुश्क खण्ड- इसके अन्तर्गत लाहौल-स्पीति, किन्नौर जिले तथा चम्बा जिले के पांगी तहसील आते हैं जो समुद्र तल से लगभग 2700 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। इस खण्ड में प्रदेष के कुल क्षेत्रा का 6 प्रतिषत भाग वनों से ढका है और 3 प्रतिषत ही कृशि योग्य है। पूरा क्षेत्रा षुश्क जलवायु वाला है। वार्शिक वर्शा 20 से.मी. गर्मियों के मौसम में होती है और सर्दियों में भारी हिमपात होता है। इस खण्ड में केवल एक ही फसल गर्मी के मौसम में की जाती है। सिंचाई केवल प्राकृतिक स्त्रोतों नदी-नालों से की जाती है। भूमि बड़ी नरम किस्म की और कहीं-कहीं चट्टठ्ठान वाली होती है। जिसके कारण भूमि का कटाव भूमि के खिसकने और ग्लेषियरों के कारण होता है। पेड़-पौध्े ;स्वयं रोपितद्ध प्रायः पानी के नजदीक ही मिलते हैं जिनका उपयोग जलाने व पषुओं के चारे के लिए किया जाता है।
सिंचाई व्यवस्था
कृशि के क्षेत्रा में सिंचाई का महत्त्वपूर्ण योगदान है। बिना सिंचाई की सुविध के फसलों को पैदा करने में किसान पूर्ण रूप से असमर्थ है। कृशि को नये-नये वैज्ञानिक ढंगों से किया जा रहा है, रासायनिक खादें प्रयोग में लाई जा रही हैं, नये बीज बोये जाते हैं, अतः ये सभी सिंचाई के साथ सीध्े रूप से जुड़े हुए हैं। हिमाचल प्रदेष में प्रायः सीढ़ीनुमा, ढलानदार व छोटे खेत पाए जाते हैं। अतः सिंचाई की परियोजनाएं सीमित हैं। ऐसी स्थिति में छोटी सिंचाई योजनाएं ही सफल हैं। प्रदेष के लगभग सभी जिलों में कूहलें ही सिंचाई का प्रमुख साध्न है और लगभग 95 प्रतिषत क्षेत्रा को कूहलों द्वारा ही सींचा जाता है। कूहलों को पहाड़ के साथ-साथ बनाया जाता है जिनके माध्यम से नालों आदि के पानी को खेतों तक पहुंचाया जाता है। लाहौल-स्पीति में पूरे क्षेत्रा को बीजने से पूर्व सींचा जाता है। चम्बा जिला में पांगी तहसील और किन्नौर जिले के क्षेत्रों में भी ऐसा ही किया जाता है। बिना सिंचाई के यहां घास भी नहीं हो पाता।
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